Why India is Called Sone ki chidiya? In Hindi.
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गुप्त काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल माना जाता है क्योंकि उस समय के शासकों ने भारतीय व्यापार को मध्य एशिया पूर्वोत्तर तथा यूरोप तक फैलाया था। भारत में सोने की खान सीमित मात्रा में थी और उसमें बहुत सीमित मात्रा में सोना मिलता था। कर्नाटक की कोलार खान प्रमुख सोना की खान थी। कभी कभी सोना की सफाई और निकलने में आने वाला खर्चा अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमत से बहुत गुना ज्यादा होता था ऐसे में भारत सोने की खान कैसे बन गया? मध्य और पश्चिम एशिया के देश भारत को सोने की चिड़िया कैसे कह कर पुकारने लगे?
इसके पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण है, एक तो भारतीय अर्थव्यवस्था (Self Sustained Economic) थी जो अपने आप आत्मनिर्भरता के साथ-साथ विकास करने वाली अर्थव्यवस्था थी भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी उत्पादों पर निर्भर नहीं थी, हम अपनी जरूरत की सभी उत्पादों को बनाते थे तथा उनका निर्यात भी करते थे। हमारे कुटीर उद्योग विकसित थे कुटीर उत्पादों का बाजार भारतीय बाजारों के साथ विदेशी बाजारों में भी था।
भारतीय हस्त शिल्प, भारतीय रेशम, भारतीय कपडे तथा रत्न और आभुषण की विदेशो में बड़ी मांग थी। क्योंकि हमारी अर्थव्यस्ता आत्मनिर्भर थी हमे विदेशी उत्पादों की कोई जरूरत नहीं थी इस लिए व्यापार का संतुलन भारत की ओर था और हमें इन उत्पादों के निर्यात के बदले में सोना मिलता था जो भारतीयों के लिए सुलभ था, उस समय के तत्कालीन शाशको ने भी भारतीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सड़क मार्ग का निर्माण, उनकी सुरक्षा का बंदोबस्त तथा व्यापारियों के कारवों की सुरक्षा के साथ-साथ खान पान और रहने का भी बंदोबस्त किया। इतिहास में दर्ज सिल्क रुट के माध्यम से बंगाल के मलमल को मध्य एशिया यूरोप तक पहुंचा जाया जाता था। उस समय भारतीय शिल्पकारों कारीगरों में सहिष्णुता का बड़ा भाव था। जाति व्यवस्था भी करीगरो के कार्य से जुडी थी यह कारीगर शिल्प कला को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करते थे। इस कला से लोगो को रोजगार एवं सामाजिक सम्मान भी मिलता था।
आपस में सभी शिल्पकार अपने दायित्वों के साथ अपना जीवन निर्वाह करते थे। उस समय के शासक आपसी युद्ध में व् सत्ता के परिवर्तन में भी इस व्यवस्था को चोट नहीं पहुँचने देते थे। दक्षिण भारत और भी समृद्ध था दक्षिण भारत मसालों का बहुत बड़ा उत्पादक क्षेत्र था पुर्तगाल नाविक 1498 ईश्वी में भारत के कालीकट बंगरगाह में आया और मसालों के व्यापार से बहुत लाभ कमाया। अरबों और मुगलों ने अपने शासन काल में भारतीय शिल्पकारों तथा कारीगरों ने अपना सहयोग प्रदान किया तथा व्यापार को प्रोत्साहन दिया। भारतीय शिल्पकारों और कारीगरों का सबसे ज्यादा नुकसान यूरोपियन और अंग्रेजों ने किया उस समय स्टीम इंजन का विकास हो चुका था इस यूरोपियनों ने भारत को एक बाजार के रूप में देखा और यहां से कच्चा माल ले गए और वहां के फैक्ट्रियों में बना माल भारत के बाजारों में पहुँचाने लगे भारतीय इतिहास में नील की खेती और शिल्पकारों के हाथ काटने जैसे अनेक घटनायें दर्ज है। इन्ही यूरोपियों ने भारतीय समाज में शिल्पकार सम्बंधित और जातीगात भेदभाव भी बढ़ाया यदि में कहूं मुग़ल काल में शाजहाँ ने ताजमहल का निर्माण यही के कारीगरों तथा यहाँ के पत्थरों से करवाया इसके विपरीत अंग्रेजो और अन्य यूरोपियों ने वहां के फैक्ट्री के बने उत्पादों को यहाँ के बाजारों में बेच कर यहाँ के कारीगरों को बेरोजगार और भुखमरी के कगार पर डाल दिया। इस यूरोपियों ने चीन से रेशम खरीदने के लिए चीन के लोगों को अफीम खिलाना शुरू किया।
भारत से अफीम की पैदावार कर चीन में अफीम की बिक्री उसके बदले रेशम उत्पाद खरीदकर यूरोप पहुँचाया जिसका उल्लेख इतिहास में प्रसिद्ध अफीम युद्ध में मिलता है।
अंग्रेजो ने भारत के अंदरूनी क्षेत्रों से कच्चा माल लाने और बना माल भारत के अंदरूनी बाजारों में बेचने के लिए रेलवे लाइन का निर्माण कराया। अंग्रेजो को अपने कार्य करने के लिए अंग्रेजी जानने वाले कुछ भारतीयों की तलाश में अंग्रेजी भाषा के स्कूलों का प्रचलन किया। कहने का यह तात्पर्य है की यूरोपियन भारत में व्यापार के लिए हर तरीके से साम दाम, दंड-भेद का इस्तेमाल करते थे, उन्होंने भारत के उत्थान के लिए रेल नेटवर्क सड़क अंग्रेजी भाषा का प्रचार आदि का कार्य नहीं किया बल्कि यह सब अपने व्यापार को बढ़ावा देने के लिए किया जो गलती से हमारे लिए फायदेमंद साबित हो गया।
स्वंत्रतता आंदोलन के नायक राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों की व्यापार शक्ति तोड़ने के लिए स्वदेशी उत्पाद को बढ़ावा देने का महत्त्व दिया और कहा की अपने चरखे से काता हुआ सूत का कपडा पहनो जिससे भारतीयों शिल्पकारों को संरक्षण देने का प्रयास हुआ।आजादी के समय स्वदेशी आंदोलन में अंग्रेजो के व्यापार की कमर तोड़ दी और लोगों के जागरूकता के कारण उन्हें भारत में व्यापार अब फायदेमंद सौदा नहीं लगने लगा। आजादी के कुछ वर्षों बाद तक स्वदेशी का नारा तो लगा परन्तु शिल्पकारों और कारीगरों को संरक्षण के अन्धूरे प्रयास उनको जाग्रत नहीं कर पाएं और वो उत्पादक की श्रेणी से हटकर अपने आप को नौकर की श्रेणी में लाने का प्रयास करने लगे। यही कारण था सरकारी नौकरी की मांग बढ़ने लगी सरकारों पर बेरोजगारी का बोझ बढ़ने लगा, सेवा क्षेत्र का दायरा अर्थव्यवस्था में बढ़ने लगा धीरे धीरे भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का आधार घटने लगा।
पूर्व में सरकारों ने उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए PSU खोले जो घाटे के कारण सफ़ेद हाथी बन कर रह गए। माइक्रो एंड स्मॉल इंडस्ट्रीज को संरक्षण देने के लिए जिला उद्योग केंद्र की स्थापना की गयी। यह सभी प्रयास शिल्पकारों और कारीगरों छोटे उत्पादकों के मन में भरोसा पूर्णतया नहीं जीत पाए। हमारे यहां के पड़े लिखे तकनिकी दक्ष व्यक्ति भी अपने लिए उद्योग लगाने के बजाये नौकरी की तलाश ज्यादा करते है इसको मैं एक उदहारण से समझाने का प्रयास करता हूँ, उत्तर प्रदेश सचिवालय में चतुर्थ श्रेणी की कुछ पदों के विज्ञापन के सापेक्ष लगभग तीस लाख आवेदन आएं जिसमे बी टेक, परास्नातक, स्नातक श्रेणी के लाखों आवेदक थे यह तकनीकी दक्ष पड़े लिखे व्यक्ति अपने लिए उद्योग लगाने के बजाये चतृर्थ श्रेणी के पद पर कार्य करना हितकर समझते है। यह हमारी सबसे बड़ी कमी है की हम इन सब तकनीकी दक्ष युवाओं में स्वरोजगार का भाव उत्पन्न नहीं कर पाएं, सरकारें भी सरकारी नौकरी का प्रलोभन दे कर इसमें व्यवधान उत्पन्न करती रही है। आज आरक्षण जैसी बीमारी भी इन सरकारी नौकरी के प्रलोभन के कारन और बड़ी होती जा रही है। आज युवा अपने आप को सरकारी नौकरी में ज्यादा सुरक्षित व् सम्मानित महसूस कर रहे है।
लगभग 50 के दशक में एक कहावत उत्तर भारत में प्रचलित थी "उत्तम खेती, मध्यम बान निकृष्ट चाकरी, भीख निदान" आज हमें उसी कहावत को चरितार्थ करना होगा। अभी मुझे सोशल मीडिया पर एक जानकारी प्राप्त हुई है की लन्दन के इम्पीरियल कॉलेज, आईआईटी धनबाद की इंजीनियर स्वाति पांडेय ने सिंगापुर की मल्टी नेशनल कंपनी की नौकरी छोड़कर लखीमपुर में स्टीविया की खेती शुरू की इसके लिए उसने नर्सरी लगायी और उसने 100 एकड़ का भूखंड लीज पर लिया, स्टीविया की मांग सिंगापुर में बहुत है वहां निर्यात कर सैंकड़ों युवाओं को इस कार्य से जोड़कर रोजगार प्रदान कर रही है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है की पढ़ कर लिख कर लोग अपने आप को आगे बढ़ाने और समाज को आगे बढ़ाने की सोच पैदा करें। सरकार भी ऐसे लोगो को प्रोत्साहन दे।
समय इतिहास उन्ही पुरूषों को याद करता है जो उस समय समाज के लिए कार्य करते हुए धारा के विपरीत रहकर ,कठिनाई उठा कर आगे बढ़ते है और दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बनते है। इतिहास उन मनुष्यों को कभी याद नहीं करता है जो अपने लिए जीते है। इस 136 करोड़ की आबादी में लगभग 40 से 50 प्रतिशत युवाओं को रोजगार सरकार की सबसे बढ़ी समस्या है इसका शीघ्र समाधान भी हमें खोजना है।
इस दिशा में वर्तमान में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने काफी संजीदा ढंग से प्रयास किया है इससे पहले की भी सरकारों ने इस दिशा में प्रयास किया लेकिन चुनाव में चुनावी फायदों के चक्कर में सरकारी नौकरी के लोक लुभावन वादा करके अपने ही प्रयासों को बे पटरी कर देते थे। वर्तमान सरकार में अपने नीति में स्पष्ट किया की रोजगार का सृजन सिर्फ सरकारी नौकरी ही नहीं है। युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरणा ही नहीं कार्य भी करना होगा स्टार्टअप नीति, कौशल विकास केंद्र, लोकल फॉर वोकल विश्वकर्मा योजना इत्यादि योजनाओं को युद्ध स्तर पर लागू करना होगा। सरकार ने अपने जेम के माध्यम से सरकारी खरीद में छोटे उत्पादकों को हिस्सेदारी देने का प्रयास किया है। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रायोजित ODOP योजना ने काफी स्वरोजगार सृजित किये है। अभी जानकारी के अनुसार देश में MSME की कुल इकाई में से 14 प्रतिशत उत्तर प्रदेश से है जिसमे एक साल के अंदर 13 लाख इकाइयों को 42 हजार 700 करोड़ का ऋण दिया गया है जिससे 65 लाख लोगो को रोजगार के अवसर मिले है।
अंत में मै यही कहना चाहूंगा की कृषि के बाद एक बड़ी आबादी को रोजगार सृजन का माध्यम सूक्ष्म लघु माध्यम उद्यम ही हो सकता है। कोरोना काल में जब प्रवासी मजदूरों को वापस घर लौटना पड़ा , बढे उद्योगों में उत्पादन का कार्य ठप्प हो गया, भारत में बेरोजगारी में आशातीत वृद्धि हुईं और इस बेरोजगारी को काम करने में MSME विभाग की अहम् भूमिका रही। यह उपलब्धि हमारे लिए प्रेरणा श्रोत हो सकती लेकिन अभी बहुत कार्य किया जा शेष है।
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